Saturday, December 21, 2013

रंगमंच या जीवन

 
 
 
 जीवन के इस रंगमंच पे कभी हसे तो रोये कभी,
कभी चखे पकवान ख़ुशी के दुःख के व्यंजन चखे कभी,
हर दिन हैं यहाँ पात्र बदलते नयी भूमिका कथा नयी,
परदे के पीछे हैं चलती अनजानी पटकथा कई,
ऐसे ही रंगमंच के जैसे अपना भी जीवन चलता,
हम भी कथा बदल पाते तो सब कुछ कितना सुन्दर होता,
बचपन को लम्बा कर लेता जब चाहे वोह पल जी लेता,
दुःख के सब दृश्य छांट देता बूढ़ा फिर कोई नहीं होता,
अपनों के सदा निकट रहता न जाता दूर जीविका को,
त्यौहार मनाता साथ सभी होता वंचित न कभी कहीं,
सहसा मन में आया विचार रंगमंच सा यदि जीवन होता,
सब कुछ होता बस पूर्वनियोजित कल का न कुछ रहस्य होता,
कुछ सोचो दुःख जो नहीं होता तो सुख का स्वाद नहीं चलता,
यदि रहते सदा ही बचपन में तो तरुणता का दायित्व कौन लेता,
न जाते घर से दूर अगर तो नए दोस्त कैसे मिलते,
कितना सीमित जीवन होता कितना सीमित कुटुंब होता,
तो आओ करे अभिनय मिलके जीवन के रंगमंच पे सब,
परमेश्वर है जब कथाकार तो अन्त भला होगा ही तब.
 
 

शैलेन्द्र हर्ष गुप्ता
२१-दिसंबर-२०१३