Mujh pe hai ye aarop ki haye,kyon main beti hoon !!
क्यों समझते हैं मुझे वोह भूल अपनी ,
मैं भी तो उनके प्रेम की परछाई हूँ ,
हे ईश फिर क्या पाप हो गया हा मुझसे ,
जो जनम लेते ही न उनको भायी हूँ ….
क्यों माँ है मेरी परिजनों के संताप सहती ,
हैं झेल जाती सब कुछ मगर न शब्द कहती ,
लगता है यूँ की सब कलह के बीज को खुद में समेटी हूँ ,
मुझ पे है ये आरोप की हाय ,क्यों मैं बेटी हूँ !
थी गर्भ में मैं सोचती की सबका स्नेह मिलगा ,
मैं भी सुशोभित कर सकुंगी आगन को सारे ,
हर्षित करुँगी मैं सभी को अपनी किलकारियों से ,
होता सुसज्जित हैं बगीचा जैसे क्यारियों से ,
पर हाय कैसा सामने ये द्रश्य है ,
हर ओर सबमे घृणा का परिद्रश्य है ....
चुप चाप मृत सी आज मैं खामोश लेटी हूँ ,
मुझ पे है आरोप की हाय ,क्यों मैं बेटी हूँ !!
क्यों भूल जाते लोग हैं सब त्याग सारे ,
बेटी ,बहिन और माँ के रूप में हैं जो हम करते ,
हैं भूल जाते अपनी ख़ुशी उनकी ख़ुशी में ,
कुछ तो बताओ क्या हैं हम कुछ पाप करते ...
हम तो हैं कर देते समर्पित जीवन सहज ही भाव से ,
फिर हैं क्यों वंचित आज हम अपनों की स्नेह छाव से .....
इतनी उपेच्छित पर हिये में ममत्व ही समेटी हूँ ,
फिर क्यों है ये आरोप मुझपे , की हाय मैं बस बेटी हूँ .....