आँख की गगरी हमारी हर रात छलछलाती रही,
कोशिश बड़ी की भूलने की पर याद वोह आती रही,
कोशिश बड़ी की भूलने की पर याद वोह आती रही,
मन ही मन कुछ अबसाद उमड़े,
बंद आँखों में कहीं,
अश्रु की धारा भी सूखी,पर आँख मुस्काती रही…
बंद आँखों में कहीं,
अश्रु की धारा भी सूखी,पर आँख मुस्काती रही…
सांझ की ठंडी हवा अब तक जो देती थी सुकून,
आज कुछ ऐसी लगी जैसे की मन झुलसा गयी…
आज कुछ ऐसी लगी जैसे की मन झुलसा गयी…
वोह समुन्दर के किनारे साथ चलना संग तेरे,
उन हसी लम्हों की यादें फिर मुझे तड़पा गयी…
उन हसी लम्हों की यादें फिर मुझे तड़पा गयी…
बारिशें अब भी बरसती हैं मेरे इस गाँव में,
अब मगर बरसी वोह ऐसे अम्ल सी झुलसा गयी…
अब मगर बरसी वोह ऐसे अम्ल सी झुलसा गयी…
शाम को अब भी कभी होता भरम तू पास है,
पर अकेलेपन की आहट हर पल चिढ़ाती गयी ……
पर अकेलेपन की आहट हर पल चिढ़ाती गयी ……
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मन को तसल्ली दे न सका मैं ,ढूँढा तुझे जब याद में,
आँखों को मैं मूँदके नींदों को भरमाती रही….
आँखों को मैं मूँदके नींदों को भरमाती रही….
तू न आया याद में तेरी मैं ये आँख डब डबाती गयी,
कोशिश बड़ी की भूलने की पर याद वोह आती रही…….
कोशिश बड़ी की भूलने की पर याद वोह आती रही…….
शैलेन्द्र हर्ष गुप्ता
(२०-अक्टूबर-२०१३)